जो मर्द औरतों को जीवनसाथी चुनने का बुनियादी इंसानी हक देने को तैयार नहीं, वो उन्हें संपत्ति-सत्ता में बराबरी देने की वकालत कैसे करेंगे भला?

हम बात करते हैं औरतों की बराबरी की, लेकिन ये बराबरी कैसे मिलेगी। सिर्फ औरत की इज्जत करने से मिलेगी? बिल्कुल गलत जवाब। सिर्फ इज्जत करने से नहीं मिलेगी। औरतों को बराबरी मिलेगी, सत्ता, नौकरी और संपत्ति में बराबर की भागीदारी से। बराबर काम के लिए बराबर तनख्वाह से, बराबरी के मौके और बराबरी की जगह से।

और जैसे ही इन ठोस अधिकारों की बात करो, अधिकांश मर्दों की प्रतिक्रिया क्या होती है। उन्हें ऐसा लगता है, जैसे किसी ने उनकी गर्दन पर कुल्हाड़ी रख दी है। वो बिलबिलाने लगते हैं। पंजाब सरकार ने सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की घोषणा की है और अभी से इनके मुंह बिचकाने शुरू हो गए हैं।

मुंह तो इनका जरा-जरा सी बात पर बिचक जाता है। औरतों को जरा सा कुछ एक्स्ट्रा मिल जाए और फिर देखिए इनका रोना। दिल्ली में जब ऑड-इवन लागू हुआ तो दिल्ली सरकार ने अकेली और साथ में छोटा बच्चा लिए महिलाओं को इस नियम से छूट दी। मेरे दफ्तर में मर्द शिकायत करते पाए गए। औरतों का बढ़िया है। इन पर कोई नियम लागू नहीं होता।

मुझे गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन मैंने आवाज धीमी रखते हुए पांच मंजिला उस दफ्तर में ऊपर से लेकर नीचे तक काम करने वाली कम से कम 30 महिलाओं का नाम गिनाया, जो दफ्तर आने से पहले अपने छोटे बच्चे को स्कूल, क्रैच या उनकी नानी के घर छोड़कर फिर काम पर आती थीं। दफ्तर से लौटते हुए पहले बच्चे को लेतीं, फिर घर जातीं। ये सारी औरतें तलाकशुदा या सिंगल मदर नहीं थीं। लेकिन, बच्चे को संभालने की जिम्मेदारी अकेले उनके ही सिर आई थी।

पूरे दफ्तर में एक भी ऐसा मर्द नहीं था, जो दफ्तर के पहले और बाद में बच्चे की जिम्मेदारी उठाता हो। ऐसे में औरतों को ये सुविधा देना कोई एहसान नहीं, बल्कि उनकी थोड़ी परवाह कर लेना थोड़ा जिम्मेदार, थोड़ा संवेदनशील होना है।

मर्दों ने तो नाक-भौं तब भी सिकोड़ी थी, जब औरतों को दिल्ली की बसों में मुफ्त यात्रा करने की सुविधा दी गई। मर्दों ने कहा- "ये मुफ्तखोर औरतें" इन्हें सबकुछ मुफ्त में चाहिए। यह अंतर्विरोध कितना मारक है कि संसार के 90 फीसदी धन, जमीन, संपदा पर अकेले कब्जा जमाए मर्द एक बस टिकट मिल जाने पर औरतों को मुफ्तखोर बुलाने लगते हैं। पता नहीं, ये महज मूर्खता है या असल में धूर्तता है।

राजनीति में औरतों के लिए आरक्षण का मुद्दा पिछले 45 सालों से लटका हुआ है। आजाद भारत के इतिहास में कोई दूसरा ऐसा बिल नहीं है, जिस पर 45 साल से मर्द नेता एकमत न हो पाए हों। 1974 में पहली बार यह सवाल उठा कि राजनीति में महिलाओं की बराबर भागीदारी को सुनिश्चित करना जरूरी है। समाज में औरतों की स्थिति तभी सुधरेगी, जब सत्ता और नीति निर्धारक पदों पर उनकी मौजूदगी होगी।

1996 में पहली बार देवगौड़ा सरकार के समय संसद में महिला आरक्षण बिल पेश हुआ, जो ज्यादातर मर्द नेताओं को नहीं सुहाया। संसद में जूतमपैजार हो गई। मजे की बात ये थी कि समाज के अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की लड़ाई लड़ रहे पिछड़े वर्ग के नेता भी इस बिल के सख्त खिलाफ थे। शरद यादव ने संसद में कहा कि "इससे सिर्फ परकटी महिलाओं को फायदा होगा। उसके बाद 1998, 1999, 2002 और 2003 में दोबारा इसे संसद में पेश किया गया, लेकिन नतीजा सिफर। 2010 में मनमोहन सिंह सरकार के समय राज्य सभा से फाइनली बिल पास हो पाया, लेकिन लोकसभा में फिर भी अटका ही रहा। आज तक अटका है।

आगे भी अटका ही रहेगा, क्योंकि हम औरतों को मर्दों के बाहुबल वाली इस संसद और व्यवस्था से न्याय और बराबरी की बहुत उम्मीद है भी नहीं। जैसे डंडे के बूते जोर-जबर्दस्ती बीजेपी भी संसद में तमाम बिल पास कराती दिख रही है, औरतों की समान भागीदारी सुनिश्चित करने वाले बिल को वो प्यार-मोहब्बत से भी पास करवाकर राजी नहीं है। उसे पड़ी ही नहीं है, किसी को पड़ी नहीं है।

उन्हें तनिष्क का विज्ञापन बंद करवाने की ज्यादा पड़ी है, जिसका एक बहुत सीधा और साफ संदेश ये भी है कि हर बालिग औरत को अपना जीवन साथी अपनी मर्जी से चुनने का अधिकार है, फिर चाहे वह किसी भी जाति और धर्म का क्यों न हो। उसे यह अधिकार भारत का संविधान देता है। लेकिन नहीं, इतनी मामूली सी बात इन मर्दों के दिमाग में नहीं घुसती। जो इतना बुनियादी इंसानी हक देने को तैयार नहीं, वो संपत्ति और सत्ता में औरतों को बराबरी का हक देने की वकालत कैसे करेंगे भला।

नवरात्र चल रहे हैं। घर-घर में बेटियों के चरण धोने, उन्हें पूजने का उपक्रम शुरू हो जाएगा। पूरे नौ दिन देवी दुर्गा के बहाने स्त्री शक्ति का गुणगान होगा। लेकिन, सच सब जानते हैं। लड़कियों को भी ये बात ढंग से पता है कि उनकी इज्जत तभी तक है, जब तक वो देवी हैं, मूर्तियों में विराजमान हैं, श्रद्धा स्वरूपा हैं। जैसे ही वो मूर्ति से बाहर निकलकर हाड़-मांस का इंसान हो जाती हैं, अपना हक मांगती हैं, दुनिया उन्हें नोचने-खाने पर उतारू हो जाती है।

दो मिनट में वो देवी के ओहदे से उतरकर डायन हो जाती है। फेमिनाजी कहलाती है। मर्द उनसे नफरत करते हैं, उन्हें मुफ्तखोर बुलाते हैं। उनके अधिकारों वाले बिल पर सांप की तरह कुंडली मारकर बैठ जाते हैं। लड़कियों, ये दुनिया तुम्हारे लिए नहीं है। तुम इनके झांसे में मत आना। इनके पूजा-पाठ के ढोंग को समझना। असली सवाल करना। असली हक मांगना, तब तक मत आना, जब तक ये मर्दानगी के शिखर से उतरकर इंसानियत की जमीन पर न आ जाएं, मनुष्य न बन जाएं।

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